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तेरह साल का था मैं. गर्मी की छुट्टी में मुझे और छोटे भाई सतेन्द्र को लेकर अम्मा मामा के घर गयीं. छुट्टी खतम होने के पश्चात उन्होने मुझे नाना के साथ बरहज(देवरिया) भेज दिया अंग्रेजी माध्यम से पढाई करने के लिए. मैं एक सप्ताह किसी तरह नाना के पास रहा. दिन-रात छुप-छुपकर रोता रहता था. हरदम अम्मा की याद आती थी. मैं पहली बार अम्मा से दूर हुआ था. नाना शनिवार को जैसे ही घर के लिए निकले, मैंने सोनू से मिन्नत की कि वे मुझे मेरे घर बगहीडाढ़ लेकर चलें. मैं अम्मा से मिल लूँगा और वे आज़मगढ़ जाकर अपने मम्मी-पापा से. उन्होने मुझसे कसम खिलवाई कि सोमवार की सुबह नाना के लौटने से पहले बरहज आ जाएंगे. मैने कसम तो खाई लेकिन मैं लौटा नही. मैं अम्मा से दूर नही रहना चाहता था. अम्मा भी मुझसे एक सप्ताह दूर रहकर जान गई थी कि वे मुझसे दूर नही रह सकती. चाची ने बताया कि तुम्हारी अम्मा रोज रोती रहती थी, लग रह था जैसे बेटी विदा करके आई हैं.
मुझे और छोटे भाई को अम्मा अपने साथ लेकर सोती थी. गर्मी के दिनो में कभी-कभी मेरी आँख खुलती तो देखता कि वे बैठकर बेना डोला रही होती थी. शाम को रसोइघर में अपने पास बैठाकर वे मुझे पढाती थी. पन्द्रह अगस्त और छबीस जनवरी के लिए गाने याद करवाती थी. स्कूल जाता तो रोज एक या दो रुपये देती की कुछ खा लेना. अम्मा सख्त बहुत थी. अगर सुन लेती कि मैं गोली खेल रहा था तो कमरा बन्द करके पिटाई करती थी. सतेन्द्र और मैं कई बार कमरे में साथ बन्द हुए थे. अगर घर का कोई दूसरा सदस्य हम पर हाथ उठाता तो अम्मा बर्दाश्त नही करती. वे समय की पाबन्द थी. शाम को अगर मैं दोस्तों के साथ् खेलने जाता तो एक समय सीमा में वे लौटने का आदेश देती थी. उनकी मर्जी के बिना हम कहीं नही जा सकते थे. वे हमेशा पढाई पर जोर देती. पढाई के लिए ही उन्होने मुझे खुद से दूर किया. ग्रेजुइशन के लिए उन्होने मुझे इलाहाबाद भेजा. इस बार वे सफल हुई, लेकिन उस वक्त से मैं अम्मा से दूर ही हूँ. लगभग आठ साल हो गए. इलाहाबाद, दिल्ली और अब मुम्बई.
जब अम्मा ने मुझे खुद से दूर भेजा था तब मुझे बहुत गुस्सा…बहुत रोना आया था, लेकिन आज सोचता हूँ कि अगर अम्मा ने उस वक्त मुझे इलाहाबाद नही भेजा होता तो क्या मैं आज यहाँ होता? मुझे इलाहाबाद भेजने के लिए अम्मा को न सिर्फ पापा से बल्कि आजी-बाबा और घर के दूसरे लोगों से लड़ना पड़ा था. सयुंक्त परिवार था और अब तक घर का कोई लडका पढ्ने के लिए दूसरे शहर नही गया था. अम्मा ने सभी विरोधों का सामना किया यह कह्कर कि वे दूसरों का मुंह देखने के चक्कर में अपने बेटे का भविष्य नही खराब कर सकती. आगे की पढाई के लिए इलाहाबाद से जब दिल्ली जाने की बात आई तो अम्मा ने एक बार फिर मोर्चा सम्भाला. पापा को राजी किया और मैं दिल्ली पहुँच गया. आजकल अम्मा की चिंताएं मेरे लिए दूसरे किस्म की हैं. अब वे जल्द से जल्द मेरी शादी देखना चाहती हैं. आजकल वे लड़कियाँ देख रही हैं. क्या अम्मा जितना फिक्र्मंद बेटे के लिए कोई दूसरा शक्स हो सकता है? जवाब ना ही है. क्योंकि अम्मा…..अम्मा होती हैं.
-रघुवेंद्र सिंह (अम्मा से जुडी चन्द बातें)
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